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कविता संग्रह >> एक और नचिकेता

एक और नचिकेता

जी.शंकर कुरुप

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :72
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5529
आईएसबीएन :81-263-0620-3

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प्रस्तुत है जी.शंकर कुरुप की दस कविताओं का संग्रह

Ek Aur Nachiketa

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

भूमिका

‘एक और नचिकेता’ महाकवि जी.शंकर कुरूप की दस कविताओं का संग्रह है जिन्हें कवि की पुरस्कृत कृति ‘ओटक्कुष़ळ्’ की परवर्ती कविताओं में से चुना गया है। इस संग्रह में कोई विशेष भूमिका नहीं जा रही है, क्योंकि कवि को अपने काव्य-विकास और अपनी कविता की प्रकृति के सम्बन्ध में जो कुछ कहना था वह ‘ओटक्कुष़ळ्’ के वक्तव्य में उन्होंने कह दिया। यह कृति, कहना चाहिए, यह संग्रह, एक प्रकार से ‘ओटक्कुष़ळ्’ का सहयोगी प्रकाशन है क्योंकि ‘ओटक्कुष़ळ्’ में केवल वे ही कविताएँ संगृहीत हैं जो 1950 तक लिखी गयी थीं, जब कि कुरूप के कृतित्व को समझने और उसका मूल्यांकन करने के लिए परवर्ती काव्य की जानकारी और अध्ययन आवश्यक है।
इसी दृष्टि से इन कविताओं का चयन और संग्रह यहाँ प्रस्तुत है।
पुस्तक का मूल्य अधिक न बैठे, इसलिए ‘ओटक्कुष़ळ्’ की प्रकाशन-पद्धति से भिन्न, इस संग्रह की कविताओं का मूल मलयालम रूप नहीं दिया गया है। ‘ओटक्कुष़ळ्’ में वह इसलिए आवश्यक था कि जिस अनुवाद के आधार पर कवि के काव्य को हिन्दी जगत् के सामने प्रस्तुत किया गया है उसकी अक्षमता स्पष्ट रहे। ‘एक और नचिकेता’ के सम्बन्ध में इसीलिए वैसा पुनःस्पष्टीकरण अनावश्यक हो गया है।
श्री गोविन्द नारायण पिल्लै का आभारी हूँ कि उनके द्वारा प्रस्तुत अनुवाद के प्रारूप से रूपान्तर करने में सुविधा हुई।
प्रयत्न किया है कि कवि का मूल भाव हिन्दी-अनुवाद में अक्षुण्ण रूप से आ जाए। जानता हूँ कि कृति के साथ यदि पूरा न्याय नहीं हो सका है तो दोष श्री पिल्लै का नहीं, मेरा है। यों, अनुवाद के माध्यम से पूरा-न्याय किसी कृति के साथ यदा-कदा ही सम्भव होता है।
इस कृति के पाठक ‘ओटक्कुष़ळ्’ अवश्य पढ़ें, यह अनुरोध है।
[प्रथम संस्करण, 1966 से]
लक्ष्मीचन्द्र जैन

सर्ग-गीत


चिन्तको, हट जाओ ! वाचालो, मौन साधो !
कालरूपी कलिन्दजा की कूल-भूमि में
नील-गगनरूपी विशाल कदम्ब-तरू में
तारक-सुमन विकस्वर हो सुशोभित हो रहे हैं।
उस तरू के पीछे खड़ा,
गम्भीर भावनाओं और प्रेम से आपूरित हो,
कोई-
सृष्टि और संहार के राग-भेदों को
मादक स्वर में आलाप रहा है।
कितना धीर है यह स्वरारोह !
कितना विलक्षण है यह अवरोह !
पृथ्वी की नील-सागर मेखला
खिसक रही है
तरलायित हो मुखर हो रही है।
अन्धकार का कुन्तल-बन्ध विश्लथ हो बिखर रहा है।
नित्यता को भी मुग्ध करनेवाले
इस राग को सुनकर,
बारी-बारी से आनेवाली ऋतुओं की
भावभंगिमा का प्रदर्शन कर,
मेदिनी देवी नर्तन कर रही है।
और,
प्रतिपल परिवर्तित होते मुख-राग के साथ
सन्धाएँ मुग्ध मूर्च्छित सी खड़ी हैं।
चिन्तको, हट जाओ !
वाचालो, मौन साधो !
आज मैं नवीन सर्ग-संगीत की दिव्य टेक सुन रहा हूँ।
आज मैं सुन रहा हूँ वह अत्युदार टेक
-जिसमें मृत्यु की श्रुति निहित नहीं है।
समस्त गोलाकार मण्डल,
राग की स्वर-लहरियों के स्पर्श से
जाग्रत हो, नृत्य-रत है।
उमड़ते आह्लाद से तरंगित मेरा मन
ताल खोजने की धुन में लीन है।
गीत की भाव-व्यंजना की खोज में आतुर वसुन्धरा
अपने पद-न्यास,
अपने मुख-कर्ण,
अपने अलंकार
बार-बार बदल रही है।
प्रीतिमय सर्ग-संगीत से झरता यह नृत्य
देखने के लिए
मेरे नयनों को कौतुक से खिलने दो
मुझे स्वयं में खो जाने दो
चिन्तको, हट जाओ !
वाचालो, मौन साधो !
1950


पथिक-गीत


ऊपर चमकनेवाले तारे !
बताओ
क्या दूर कहीं प्रभात दिखाई देता है ?
तुम्हारा प्यारा-प्यारा मुखमण्डल
किस अतिशय आनन्दातिरेक से प्रफुल्ल हो रहा है ?
हे पुलकप्रद !
मेरे ये जागे हुए प्राण
तेरे साथ आन्दोलित हो रहे हैं।
ओ प्यारे !
तेरे तरल नयनों में
यह स्मित रेखा की झलक है
या चमकते हुए आँसू की ?

धरती की धूल और स्वेद से दूर
ऊपर रहनेवाले !
तुम नहीं जान सकते
उस मन की प्यास को-
जो अन्धकार से अन्धकार की ओर
मरु-प्रदेश से मरु-प्रदेश की ओर
युगों से भटक रहा है।
मेरा यह ऊँट, पुराने काल की
स्मृतियों से खचित उन राहों पर शिथिल श्रान्त
चल रहा है, जहाँ
शोक-गाथाओं का आलाप होता रहता है।
जहाँ आगे और पीछे
दायें और बायें
रुदन-रौरव के अतिरिक्त
कुछ सुनाई नहीं देता।

इने-गिने लोगों की तृष्णा बुझाने के लिए
बहुतों की आँखों में खुदाई की जा रही है;
किन्तु उनसे बहते पानी के
खारेपन से
उन्हीं का कण्ठ सूखता जा रहा है-
उनके हृदय-पिण्ड में,
आर्द्रता की नन्ही कणिका तक दिखाई नहीं देती !
शीतल सुरभित भव्य पवन की प्रतीक्षा करने वाले
हम
आज व्याकुल हो छटपटा रहे हैं !
आज केवल वध-स्थलों के
रक्त की दुर्गन्धि से भरी हवा चल रही है।
न दूर और न पास
कहीं भी एक ऐसा मित्र दिखाई नहीं देता
जिसने मुखौटा न पहन रखा हो।
सब ओर,
निपुण तस्कर घातकों की परछाइयाँ
हिल रही हैं।
किन्तु,
मेरा यह ऊँट इसी रास्ते से होकर
जीवन का गुरुभार वहन कर भटक रहा है !-
कलह से दूर
आकाश की विशालता में
संहारक गर्जन को अनसुनी किये
वध-स्थली को अनदेखा किये
अन्धकार से अनाक्रान्त हुए
चित्त को अचंचल रखे
यातना की दुर्गन्ध-भरी साँसों से बचकर
न स्वयं दास होकर
न किसी को दास बनाकर।

हे मुग्धात्मन् !
अनुज की अश्रुधारा बिना पान किये
विश्व-सृष्टि के प्रारम्भ से आज तक
स्थिर-मन खड़े रहनेवाले
गगन का तम्बू खोलकर झाँको;
बताओ, दूर कहीं प्रभात दिखाई देता है ?
निरुपम स्नेह की लघु-लहरियों से भरा
सरोवर कहीं दृष्टिपथ में आता है ?
क्या मेरे इस थके ऊँट को विश्राम देने के लिए
कोई शब्द-स्थली नहीं है ?
1951


अन्तर्दाह


सन्ध्या की बहुरंगी कान्ति में
क्षितिज पर बिखरे नीरद-कण
जब पल्लवित हो उठे,
तब-
खोलकर
नीले आकाश का मरकत-वातायन
नीरव, निष्कम्प,
सरल-स्वच्छ हास्ययुक्त
अप्सरा-सी मुक्तमना, लास्यमयी-
शारदीया-साँझ के सौभाग्य से
उज्जवलित, गर्विता
तारिके !
तू आज भी यथापूर्व
आ खड़ी है।
तेरे स्नेह-तरल नयनों के अश्रुकण
प्राणों में पीकर मैं,
बेसुध हो जाता था निज अस्तित्व से।
किन्तु,
वे निमिष अब
दुर्लभ हो, दूर हैं
स्मृति-रेखा के पार।
हाय, मैं सत्प्रत्न करूँगा।
उसी भाग्य-अनुभव की ओर जाने का,
भावना में डूबकर, उसी दिव्य आनन्द में
निमज्जित होने का।
न समझो कि मैं निरर्थक आत्म-श्लाघा कर रहा हूँ।
न जाने, उन दिनों, कैसा लाघव था वातावरण में
हरी-हरी तराइयाँ, अरुण विटप, और
पीले खेत !
स्वच्छ नीलिमा से आच्छादित प्रशस्त मैदान !
सब के सब-
मादक वायु की श्वासों से अनुप्राणित वे,
मेरे पद-विन्यास से क्लान्त नहीं होते थे।
उस सौम्य रूप को निहार,
रम्य नाद को श्रवण कर
मेरा मन आनन्द-आवेग से नाच उठता था।
पारावतों के साथ पंख फैलाकर,
फूलों के साथ हवा में झूमकर,
झरनों के हाथ में हाथ डालकर,
गा-गाकर और
नाच-नाचकर जी-भर-
मेरा तरुण हृदय
विहार करता था।
हे सखि !
प्रचुर चाहे जितनी हो अन्तर्दाह-
सुख-स्वादन न हो सकेगा अब उस मोहक गीत का !

तब था मैं सबका स्नेह-भाजन-
विश्व मेरा गेह था,
फूल-तारे मित्र थे,
ऐसे में उतरकर आ खड़ी हुई तू
स्वर्गीय किरण-सी ऊर्ध्वलोक से
मेरे उत्पल नयनों का किया तूने अभिवादन।
तेरे आलोक-तेज से छिटकतीं मौन रागिनयाँ-
भावपूर्ण, आर्द्र और हर्षमयी
ध्वनित कर गयीं मन-पथिक को;
जगा गयीं ध्यानस्थ सत्य और सौन्दर्य को।
छू निज आत्मिक सौष्ठक से,
बना गयीं कवि-
मुझ जड़-मिट्टी के विकार-मात्र को।
खेतों की मेंड़ से सटा मुकुट्टि कुसुम-
चमक उठा स्वयं तारक-नक्षत्र-सा।
काल के पथ पर चल सका न कोई पीछे,
खोया जो यात्री ने, वह सदा को खो गया।

यह शान्त और सुन्दर संहार नहीं तेरा,
मेरा यह विश्व है शोक से आक्रान्त,
जर्जर और परिवर्तनशील।
होते यहाँ कान्तिहीन, तुझसे अधिक प्रकाशवान्,
हो जाते हैं शुष्क, तुझसे अधिक प्रफुल्लवदन,
सुख-शान्ति के अधिक भागी, ग्रस्त हो जाते हैं
चिर-विषण्ण अवसन्नता में।
दृष्टिगोचर होता यही दृश्य सब दिशाओं में
करुणा से गद्गदाते स्वर सुनाई देते हैं-
कहो, फिर कैसे न हो चित्त जराक्रान्त यहाँ ?
हे दिव्य-ज्योति !
यदि तू भी आ जाए यहाँ
तो तेरी भी आत्मा हो जाए जड़वत् एक ही दिन में-
बन जाएगी मिट्टी का ढेला।
हाय, क्यों आ पड़ी यह काली छाया हमारे बीच ?
हाय, क्यों कुरेद गया क्रूर नख मेरी आँखों को ?
हे स्वर्गनन्दिनि !
अनभिज्ञ हो तुम मर्त्यलोक की दुरवस्था से।
बनी रहो अपरिचित यों ही, यही मेरी इच्छा है।
यह भूमण्डल केवल घनीभूत वाष्प है,
और यह अन्तरिक्ष गरम नि:श्वास है,
काली चट्टानें जमे रक्त के ढेले हैं,
जीवित हैं यहाँ केवल दारिद्र, रोग और युद्ध।
कड़वी गन्ध व्याप्त है जीवन की जड़ों में,
तनों में और फूलों में।
नवजीवन प्रदान करनेवाले हाथ यहाँ गलते हैं
पृथ्वी पर अंकित स्वप्न विकृत हो मिटते हैं
झड़ जाती है परिष्कृति, सभ्यता, संस्कृति
यदि कभी खिलती भी है इधर-उधर मरघट की राख में
या जंगल में उगे आक की फुनगी पर;
जनमती है पुन:,
किन्तु,
पीली और जीर्ण होने को अन्तत:
शाश्वत है एक यहाँ-केवल दु:ख शोक !
हे सखि !
मैं अपनी दु:ख-कथा कहने नहीं आया हूँ,
आया हूँ तेरे पास आश्वासन की खोज में
आत्मा है आकुल मेरी क्षितिज के छोर छूने को
तेरी दुलार-भरी रश्मियों के सहारे;
किन्तु,
कन्धों पर रखे क्रूर यथार्थ के बोझिल हाथ
चाप रहे हैं चारों ओर से ।
हे मेरी कौमार्य मित्र !
जानती है तू क्या
कितनी दूर है मुझसे अब !
तू स्वर्ग की पुत्री है-
और मैं ? –मिट्टी की सन्तान;
तेरी परम्परा है चिर आनन्द-आलोक की
और मेरी ?-मलीमस तामस विषाद की।

हे धन्ये !
काल के क्रूर हाथों में पड़कर
प्रखर तेजोज्जवल धातु भी अन्धा सीसा बन जाती है,
इसलिए
मंगल कामना यही मेरी
कि,
जीवन के नवोन्मेष सचेतन-
शाश्वत हो लावण्य-सुधा तेरी !
1952





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